ताई की सांकेतिक शब्दावली में छिपे ‘डर’ और मायूसी के साए...

-अजय बोकिल, वरिष्ठ संपादक


जाने-माने उद्योगपति राहुल बजाज द्वारा देश में व्याप्त 'डर' का सार्वजनिक इजहार किए एक दिन भी नहीं बीता था कि भाजपा की ‍‍वरिष्ठ नेता और पूर्व लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने 'भय' के उसी भाव को यह कहकर विस्तार दिया है कि जब वे लोकसभा सांसद और स्पीकर थीं, तब पार्टी के अनुशासन के चलते अपनी पार्टी के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकती थीं। उन्हें जब काम निकलवाना होता था तो वे कांग्रेस नेताओं की भी मदद ले लेती थी। सुमित्रा ताई ने मौन रहने की इस विवशता को इंदौर में सरकारी एमवाय अस्पताल के कैंटीन के शुभारंभ के मौके पर व्यक्त किया। इस आयोजन में कांग्रेस नेता और स्वास्थ्य मंत्री तुलसी सिलावट, उच्च शिक्षा तथा खेल मंत्री जीतू पटवारी तथा राज्यपाल लालजी टंडन भी मौजूद थे। यूं तो कार्यक्रम में मुख्यप मुद्दा इंदौर शहर के विकास का था, लेकिन बातों ही बातों में ताई ने अपने मन की व्यथा भी जाहिर कर दी। हालांकि इसका माध्यम भी उन्होंने इंदौर के विकास को ही बनाया। ताई ने कहा कि इंदौर शहर के विकास के लिए हम सब एक हैं। कभी-कभी जब इंदौर के विकास को लेकर कोई सवाल उठाना होता था तो मैं कांग्रेसियों को बोलती थी कि तुम आंदोलन करो,‍ फिर  मैं इस बारे में (तत्कालीन) मुख्यंमंत्री शिवराजसिंह चौहान से बात करूंगी। उन्होंने यह भी कहा कि चूंकि राज्य में हमारी पार्टी ( भाजपा) की सरकार थी, इसलिए हम उसके खिलाफ आंदोलन नहीं कर सकते थे। मैं पार्टी लाइन और अनुशासन में बंधी थी। लेकिन जन समस्याअों के लिए आंदोलन तो करना पड़ता है। ऐसे में मैं कांग्रेस के नेता जीतू पटवारी और तुलसी सिलावट से धीरे से कह देती थी कि भैया इंदौर के लिए कुछ करो, कुछ तो कहो, मुद्दे उठाओ। मैं आपकी बात शिवराज सिंह चौहान और केंद्र सरकार तक पहुंचा दूंगी।'  इतना ही नहीं ताई ने कार्यक्रम में मंत्री जीतू पटवारी की तारीफ करते हुए कहा कि उनमे मेरा शिष्य बनने के सभी गुण मौजूद हैं। मैंने जो भी किया वह केवल इंदौर शहर के विकास को ध्यान में रखते हुए ही किया। ताई ने कहा ‍िक जब हमारा एजेंडा विकास होता है तो फिर हम पार्टी पॉलिटिक्स को दिमाग में नहीं रखते हैं। 
ताई भाजपा की उन चुनिंदा नेताअो में हैं, जिनकी स्वीकृति सभी दलों और समुदायों में हैं। उनके मृदु  व्यवहार, संयमित भाषा और शालीनता के सभी कायल रहे हैं। भाजपा के प्रति उनकी निष्ठा भी असंदिग्ध है। वे इंदौर से लगातार 8 बार सांसद रहीं और उन्हें पिछली लोकसभा में स्पीकर भी बनाया गया। लेकिन बीते एक साल में उनके साथ जो सलूक हुआ, उससे ताई कहीं भीतर से आहत हैं। 75 पार फार्मूले के तहत उन्हें घर बिठा दिया और लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत के बाद भी उन्हें कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं दी गई। जबकि उनका ‍िटकट काटते वक्त यह चर्चा थी कि स्पीकर से शक्तिशाली  पद से हटने के बाद ताई का सम्मानजनक पुनर्वास हो सकता है। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ और अब होने की संभावना भी क्षीण है, क्योंकि भाजपा की चाल और चरित्र में बहुत से यू-टर्न आ चुके हैं। ताई की मायूसी इस बात से रेखांकित होती है कि उन्हें पूर्व में खुलकर अपनी बात कहने की आजादी नहीं थी। निजी आग्रहों को छोडि़ए  इंदौर के विकास जैसे मामलों में भी साफ तौर पर बोलने से कौन सा अदृश्य हाथ रोक रहा था? जबकिप वो तो कोई बगावत भी नहीं कर रहीं थी।  शहर की समस्या उठाने के लिए ताई को विपक्षी कांग्रेस के नेताअो पर ज्यादा भरोसा करना क्यों करना पड़ा? वो सचमुच डरी हुईं थीं या फिर उनमें खुलकर बोलने  का साहस नहीं था? अथवा अनुशासन के दायरे लक्ष्मण रेखाअोंमें बदल दिए गए थे? 
कुछ लोग ताई की बात को लोकसभा टिकट न देने तथा मोदी सरकार की सत्ता में वापसी के बाद भी उनका  समुचित पुनर्वास न करने से उपजे रोष के रूप में देख सकते हैं। इसमें कुछ सचाई है भी, लेकिन उससे भी बड़ा वह 'डर' है, जो किसी भी भाजपा नेता को सच बोलने से रोकता है। ऐसा 'डर' जो सार्वजनिक तो छोड़े पार्टी मंच पर भी हकीकत बयान नहीं करने  देता। उसे अपनी आंखों पर वही चश्मा चढ़ाए रखना होता है और होठों पर वही सरगम गुनगुनाती होती है, जैसा कि ऊपर से निर्देशित होती है। वहां संवाद केवल वाद के रूप में जिंदा है। ऐसे में व्यक्ति के सामने दो ही विकल्प बचते हैं या तो वह पार्टी छोड़कर कोई दूसरा झंडा थाम ले या फिर अनुशासन की कोठरी में  घुट-घुट कर जीता रहे। बोलेगा तो उसे उसकी औकात बता दी जाएगी।  हालांकि ताई को इतना कुछ कहने के बाद भी उद्योगपति राहुल बजाज की तरह ट्रोल नहीं किया गया, लेकिन कोशिश यही साबित करने की है ताई की बात  सचबयानी न होकर केवल 'कुछ' भी न पाने का क्षोभ है। एक तर्क यह भी  है कि अगर ताई इतनी ही आहत थीं तो पहले क्यों नहीं बोलीं। इंदौर के विकास से अपनी आकांक्षाअों को जोड़ने की जरूरत उन्हें क्यों पड़ी? 
ताई के कथन पर कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला  ने टिप्पणी की कि मोदी सरकार की तानाशाही से पूर्व लोकसभा स्पीकर अध्यक्ष सुमित्रा महाजन भी पीड़ित थी। वे जनता के मुद्दों पर भी अपनी बात पार्टी के मंचों पर नहीं रख पाती थीं। ये डर नहीं है तो और क्या है ?
गौरतलब है कि दिल्ली के तख्त पर मोदी सरकार के भारी बहुमत से सत्तासीन होने और बीते एक साल में भाजपा के हाथ से एक के बाद एक राज्य निकलने से फर्क यह आया है कि लोग अब अपनी जुबानें खोलने लगे हैं। अनुशासन और निरंकुशता में छिपे बारीक अंतर को उघाड़ने लगे हैं। ताई जैसी मृदु भाषी महिला नेत्री का इजहारे दर्द यही साबित करता है कि अनुशासन के नाम पर पार्टी नेताअो पर तलवार लटकाकर रण जीतने का दौर अब उतार पर है। एकांगी अनुशासन और तानाशाही में बहुत मामूली फर्क है। दरअसल राजनीतिक सफलताअोंके हैलोजन की चकाचौंध में विरोध और दमन के नाइट बल्बों की चमक दिखाई नहीं देती। लेकिन वे भी जुगनू की तरह दमकने लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी और खासकर भाजपा के चाणक्य कहाने वाले अमित शाह की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगने लगे हैं। फिर चाहे वह महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे के रूप में हो अथवा इंदौर में रिटायर्ड लाइफ जी रही ताई की कसक के रूप में हो। शिवसेना और आजसू का एनडीए से अलग होने के रूप में हो या फिर चंद भाजपा नेताअों का अपनी पार्टी के नेताअोंको निपटाने के अभियान की शक्ल में क्यों न हो, ये सब इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आज भाजपा ऊपर से जितनी मजबूत और एकजुट दिखती है, भीतर से वैसी है नहीं। क्योंकि पार्टी में असंतोष और घुटन का वायरस अंदर ही अंदर तेजी से फैल रहा है। इसके बावजूद शीर्ष स्तर पर उसको लेकर कोई चिंता है, ऐसा नहीं लगता। ताई ने सांकेतिक शैली में जो कहा, वह तो शुरूआत है। बिखराव के साए अभी और गहरे होते दिखेंगे। 



'राइट क्लिक' ('सुबह सवेरे' में दि. 4 दिसंबर 2019 को प्रकाशित)